Undoing

To forget before I can
remember.
To end before I can
begin.

साथ चलो, कुछ यादें जलानी हैं,
पीली धूप का अम्बी में ज़ायक़ा,
हरे रंग की ख़ुश्बू उस गार्डन की,
सुर्ख़, डरे ख़ूं का रगों में दौड़े जाना,
काली, ख़ाली आँखों का रातों को जागना,
नीली सड़कों पर तेज़ रफ़्तार बातें…

रंग तो वही हैं,
म’आनी नई हैं।

 

ساتھ چلو، کُچھ یادیں جلانی ہیں
پیلی دھوُپ کا امبی میں ذائقہ ہے
ہرے رنگ کی خُوشبوُ اُس گارڈن کی
سُرخ، ڈرے خوُں کا رگوں میں دوڑنا
کالی، خالی آنکھوں کا راتوں میں جاگنا
نیلی سڑکوں پر تیز رفتار باتیں
رنگ وٓہی ہیں
ان کے معنی نئے

लफ़्ज़ों के बाहिर Or لفظوں کے باہر

सोचा कि तुम्हें कभी लफ़्ज़ों के बाहिर भी ला कर देखूँ,
लफ़्ज़ों की भीतर, तुम बे-उम्र से हो गए हो जैसे।
वक़्त का, मौसमों का, कोई असर
दिखता ही नहीं तुम्हारे चहरे पर ।
क्या कोई टोना-तंतर है लफ़्ज़ों में ?
न तुम्हारे बाल ही ज़्यादा सुफ़ैद हुए,
न आँखों से शरारत गुम हुई –

लफ़्ज़ों के बाहिर तुम शायद
अजनबी हो मिरे लिए ।
लफ़्ज़ों के बाहिर
इक उम्र जो कटी है,
उस के निशाँ मैं अपने साथ लिए फिरता हूँ ।

سوچا کہ تمہیں لفظوں سے باہر بھی لا کر دیکھوں
لفظوں کے بھیتر تم بے عمر سے ہو گیۓ ہو جیسے
وقت کا، موسموں کا کوئ اثر دِکھتا ہی نہیں تمہارے چہرے پر
کیا کوئ ٹونا۔تنتر ہے لفظوں میں ؟
نہ تمہارے بال ہی زیادہ سُفید ہُوے
بہ آنکھوں سے شرارت گُم ہُوئ

لفظوں کے باہر تم شاید
اجنبی ہو مِرے لِیۓ
لفظوں کے باہر
ایک عمر جو کٹی ہے
اس کے نِشاں میں اپنے ساتھ لِیۓ پھرتا ہوں ۔

ख्वाबों में Or خوابوں میں

A couple of days back, I read Sad Tonight my friend Apoorva Mathur wrote.
I believe the rhythm and effect of it stayed on with me and the next day, I found myself writing this:

रात आधी, पूरी खाली सड़क अब भी पड़ी है, ख्वाबों में
तुम्हारे मिलने के पहले ही तक़दीर तुम से जुड़ी है, ख्वाबों में

तुम आते हो, ज़रा तेज़ चलते, कुछ मुस्कुराते, ख्वाबों में
और वो तुम्हारे इंतज़ार में, अब तक खड़ी है, ख्वाबों में

इश्क़ नया है, ज़िन्दगी कि इब्तिदा हुई है, ख्वाबों में
उमीदों को तुम्हारे साथ चलने कि ज़िद चढ़ी है, ख्वाबों में

मुलाक़ातें मुसल्सल चलती हैं, बरसात हो जैसे, ख्वाबों में
लहरों के किनारे उजालों कि कुछ धूप उड़ी है, ख्वाबों में

आँख खुली शहर ए तन्हा में, जब तुम न आए, ख्वाबों में
ख्वाब था जैसे। ज़िन्दगी ख्वाब से इस तरह मुड़ी है, ख्वाबों में

رات آدھی، پوری کھالی سڑک، اب بھی پڑی ہے، خوابوں میں
تمہارے ملنے کے پہلے ہی تقدیر تم سے جڑی ہے، خوابوں میں
تم آتے ہو، ذرا  چلتے، کچھ مسکراتے، خوابمیں میں
اور وہ تمہارے انتظار میں اب  تک کھڑی ہے، خوابوں میں
عشق نیا ہے، زندگی کی ابتدا ہوئی ہے، خوابوں میں
امیدوں کو تمہارے ساتھ چلنے کی زد چڑھی ہے، خوابوں میں
ملاقاتیں مسلسل چلتی ہیں، برسات ہو جیسے، خوابوں میں
لہروں کے کنارے اجالوں کی کچھ دھوپ اڑی ہے، خوابوں میں
آنکھ کھلی شہر تنہا میں، جب تم نہ اۓ، خوابوں میں
خواب تھا جیسے- زندگی خواب سے اس طرح مڑی ہے، خوابوں میں

बहाना Or بہانہ

​कितना आसान  उस से बातें करना!
अँधेरी सी सड़क पर, उस छोटी सी किराने की दुकान के पास भी, ऑटो-रिक्षा में, पानी-पूरी वाले या चाय वाले के ठेले के पास – बातें ऐसे आसानी से आ जाती थीं, कभी कभी तो इतनी ज्यादा के डेढ़-दो घंटे कहाँ बीत गए पता भी न चलता। शायद यह बात बाकियों को चुभती भी थी – कैसे हो सकता है, दो लोग दिन-ब-दिन एक दुसरे से यूँ बात किये जा रहे हैं! उस वक़्त कुछ बुरा नहीं लगता था। शायद यह मोहब्बत के होने का महत्वपूर्ण संकेत है – आँखों पे गुलाबी चश्मा, दुनिया रंगीन, मिज़ाज खुशनुमा, और मई के माह की चिलचिलाती धूप भी सुहानी लगे! खैर, अभी ताज़ा हुई थी मोहब्बत, और जहाँ एक तरफ वक़्त थम सा गया था, वहीँ दूसरी तरफ, दुनिया बड़ी तेज़ी से इक्कीसवीं सदी में छलांगें लगा कर आगे बढ़ रही थी।
देखते ही देखते वोह वक़्त भी आया कि एक दिन हल्दी का पीला रंग चढ़ा तो दुसरे दिन मेहँदी ने हाथ लाल किये। साड़ी मौसियाँ, बुआयें, दादियाँ-नानियाँ इकठ्ठा हुई और ददिहाल और ननिहाल वाले दो कैम्पस में बँट गयीं। ऐसे रिश्तेदार भी कहीं कहीं से आ कर प्यार-दुलार जताने लगे जिन्हें पिछले छः – आठ सालों में न देखा, न सुना।  वह पडोसी भी आ प्रकट हुए जो साल में सिर्फ बार-त्यौंहार पर मिलते, और खाने का मेनू बनाने लगे।  घर अब घर नहीं रहा, किसी मेले की शक्ल का सा हो गया – सार दिन चहल पहल।
अब वक़्त और बातें, दोनों चुराने पड़ते थे, कभी उन खुश-मिज़ाज रिश्तेदारों से नज़र बचा कर, कभी उन छेड़ने-चिढ़ाने वाले दोस्तों की मदद ले कर, कहीं वोह वक़्त और जगह ढूँढने पड़ते, जहाँ फिर से यूँ होता कि बाकि सब धीमा हो जाता, आवाज़ और किसी को न सुनते हुए भी, आपस की बातें साफ-साफ सुनाई दे जाति।  खामोशियाँ भी अब हमारे behalf पर बातें कर लेती।
बस एक वोह दिन था, जब एक दुसरे को दूल्हा-दुल्हन बना देख ऐसे हंस पड़े जैसे… जैसे क्या, बस हंसी छूट गयी कि हम इतने अजीबो-ग़रीब दिख सकते हैं।  अगले कुछ घंटे रीत-रिवाज़ों की एक प्रतिस्पर्धा सी चली दो परिवारों के बीच, और हम सोच रहे थे, कहाँ फँस गए!  यह ऐसी स्पर्धा थी, जिसमें जीता कौन यह कहना तोह मुश्किल था, पर हम तोह अपने को बड़ा थक-हारा महसूस कर रहे थे।  अब इस मक़ाम से आगे कैसे जाना है इस बात का अंदाज़ा तोह शायद न उसे था न मुझे।  तो यहीं से हमारे ट्रायल व एरर शुरू हो गए।  इन ट्रायल और एरर का सिलसिला ऐसा चला कि कभी लगता था, हमारी ट्रायल बाई एरर ही न हो रही हो, क़ानूनन।
ज़िन्दगी ने न जाने कब, कैसे, फिर रफ़्तार पकड़ी, और जीवन फिर सामान्य होने लगा।  उसके सामान्य होने के साथ साथ, बातें काम में तब्दील होने लगीं और इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं ने सांझे सपनों की जगह लेना शुरू कर दिया।  सामान्य सी ही बात थी।  और हम कौन सा कोई आसमान से उतरे फ़रिश्ते थे! पहले जीवन और फिर काम में ऐसे मसरूफ़ हुए कि  बातें हमें भूल गयीं।
पांच साल पहले बात-बेबात, बातों से भरा ख़त यूँ ही उस के नाम के लिफ़ाफ़े में डाल पोस्ट कर देती थी।  कुछ महीने पहले उसने कुछ काग़ज़ात भेजे, लिफ़ाफ़े पर मेरा नाम और पता प्रिंट कर के चिपकाया थ, ट्रांसपेरेंट वाली स्कॉच टेप से। वह टेप देखि तोह ख्याल आया, कि वोह अब तक उसी पुराणी टेप को यूज़ कर रहा है, अब यह ठीक तरह चिपकाती भी नहीं।  सोचा आज एक ख़त लिखूं उसे, कहूं, नयी टेप तो खरीद लाओ, और टेप के बहाने से, उसका हाल भी पूछ लूं।
کتنا آسان تھا اس سے بات کرنا
اندھیری سی سڑک پر اس چھوٹی سی کرانے کی دکان کے پاس بھی، آٹو – رکشا میں ، پانی-پوری والے کے یا چاۓ والے کے ٹھیلے کے پاس، باتیں ایسی آسانی سے آ جاتی تھیں . کبھی کبھی تو اتنی زیادہ کہ دیڑھ-دو گھنٹے کہاں بیتے وہ پتا بھی نہ چلا . شاید یہ باکیوں کو چبھتی بھی تھی . کیسے ہو سکتا ہے کہ دن-بہ-دن وہی دو لوگ ایک دوسرے سے یوں باتیں کیۓ جا رہے ہیں. اس وقت کچھ برا نہیں لگتا تھا. شاید یہ محبت کے ہونے کا سب سے اہم نشان ہوتا ہے : آنکھوں پہ گلابی چشمہ، دنیا رنگین، مزاج خوشنما، اور مئی کے ماہ کی چلچلاتی دھوپ بھی سہانی لگے! خیر، ابھی تازہ محبّت تھی، اور جہاں ایک طرف وقت تھم سا گیا تھا، وہیں دوسری طرف، دنیا چھلانگیں لگا کر اکیسویں صدی میں آگے بڑھ رہی تھی
دیکھتے ہی دیکھتے وہ وقت بھی آ گیا کہ ایک دن ہلدی کا پیلا رنگ چڑھا اور دوسرے دن مہندی نے ہاتھ لال کیے . ساری کھلائیں ، پھوپھیاں ، نانی-دادی، سب اکٹھا ہوئ اور دو کیمپس میں بانٹ گیئں. ایسے رشتےدار بھی کہیں کہیں سے آ کر پیار-دلار جتانے لگے ، جنہے پچھلے چھہ – آٹھ سالوں میں نہ دیکھا نہ سنا. وہ پڑوسی بھی آ گئے جو سال میں صرف بار-تیوہار پر ملتے، اور خانے کے مینو بنانے میں مدد کرنے لگے. گھر اب گھر نہیں رہا، کسی میلے کی شقل کا سا ہو چلا تھا.
اب وقت اور باتیں، دونو چرانے پڑتے تھے، کبھی ان خوش مزاج رشتےداروں سے نظریں بچا کر، تو کبھی ان چھیڑنے-چڑھانے والے دوستوں کی مدد لے کر، کہیں وہ وقت اور جگہ ڈھونڈھنے پڑتے، جہاں پھر سے یوں ہوتا کہ باکی سب دھیما ہو جاتا، اور خاموشیاں بھی ہماری جانب سے باتیں کر لیتی.
بس ایک وہ دن تھا جب ایک دوسرے کو دولہا-دلہن بنا دیکھ ایسے ہنس پڑے تھے جیسے … جیسے کیا، بس ہنسی چھوٹ گیی کہ ہم اتنے عجیب-و -غریب دیکھ سکتے ہیں . اگلے کچھ گھنٹے ریت-رواجوں کی ایک ہوڑ سی چلی دو پرواروں کے بیچ. اور ہم سوچ رہے تھے کہاں پھنس گئے. یہ ایسی ہوڑ تھی، جس میں جیتا کون یہ کہنا تو مشکل تھا، پر ہم اپنے کو بیحد تھکا – ہارا محسوس کر رہے تھے. اب اس مکام سے آگے کیسے جانا تھا، اس بات کا اندازہ شاید نہ اسے تھا، نہ مجھے. تو یہیں سے ہمارے ٹرائل اور ایرر شرو ہو گئے. ان ٹرائل اور ایرر کا سلسلہ ایسا چلا کہ کبھی تو لگتا کہیں ہماری ٹرائل بائی ایرر ہی نہ ہو رہی ہو، قانونن .
زندگی نے پھر جانے کب، کیسے رفتار پکڑی، اور جیون پھر آم سا ہو گیا. اسکے آم ہونے کے ساتھ، باتیں کب کام میں تبدیل ہونے لگی، اور انا نے سانجھے سپنوں کی جگہ لے لی. آم بات ہے نہ؟ اور ہم کون سا آسمان سے اترے فرشتے تھے! پہلے جیون اور پھر کام میں ایسے مصروف ہوئے کہ باتیں ہمکو بھول گیئں.
پانچ سال پہلے، بات-بے بات، باتوں سے بھرا خط یوں ہی اس کے نام کے لفافے میں ڈال پوسٹ کر دیتی تھی. کچھ وقت پہلے، اس نے کچھ کاغذات بھیجے، لفافے پر میرا پتا چپکایا گیا تھا. ایک پرانی سکاچ ٹیپ سے. اس ٹیپ کو دیکھ کر خیال آیا، کتنی پرانی ہو گیی ہے، اب ٹھیک طرح چپکتی بھی نہیں. سوچا، آج ایک خط لکھوں اسے. کہونگی، نیی سکاچ ٹیپ ٹوہ خرید لاؤ. اور ٹیپ کی نصیحت کے ساتھ، اسکی سیحت کا حال بھی پوچھ لوں گی.

बबलू की चूड़ियाँ OR ببلو کی چوڑیاں

1

जब भी मेरा मन भर जाता अपने जीवन की एक सी शैली देख कर, (जो के साल में कम-अज़-कम दो-तीन बार ज़रूर होता है), मैं पहुँच जाती अपने पसंदीदा नाई की दुकान, यानि कि सॅलोन में, और बालों को किसी नए स्टाइल में (ऐसा केवल मुझे लगता है) कटा आती । यह परम्परा मांने अपने अठारहवें जन्मदिन पर इजाद की थी, जब कान्धों से नीचे आते लम्बे, ख़ूबसूरत बालों को कुछ इस तरह कटाया मानों किसि १५ वर्ष का लड़का हो जिस का हाल ही में नेशनल डिफ़ेन्स अकादमी में चयन हो गया ।

फ़सल की ऐसी कटाई के बाद अगले छः महीनों तक मुसलसल ऐसी कैफ़ियत रही मानो साहबज़ादी एक लम्बी वॅकेशन पर हैं । गोआ में ।

इस घटना को बीते कुछ दस साल होने आए ।
यह साल जो बीत रहा है, और बहरहाल सिर्फ़ चन्द दिनों का मेहमान है, यह साल मेरे जीवन में कई उतार-चढ़ाव ले कर आया । जहाँ कई आदतें, चीज़ें, यहाँ तक कि लोग भी मुझ से छिन गए, वहीं कुछ ऐसे अज़ीज़ दोस्त मिल गए जो किताब के कोरे पन्नों की तरह हैं, मैं अपने मन की सारी बातें उन पन्नों को सौंप कर हर रात चैन की नीन्द सो पाती हूँ ।

इन दोस्तों में एक हैं – गुरूजी ।
अब, गुरूजी, और दोस्त, कुछ अजीब सी बात लगती है न? किसी सुफ़ैद दाढ़ी वाले बाबा की शक़्ल उभरती होगी ज़हन में । अब मैं आप से कहूँ कि यह जो गुरूजी हैं, वह हमारे हमउम्र हैं, तो आप को आश्चर्य होगा । गुरूजी से हमारी मुलाक़ात कैसे हुई, यह क़िस्सा किसी और दिन सही । आप शायद यह भी सोच रहे होंगे कि इस कहानी का नाम इतना अटपटा सा क्यूँ है ? अब, बबलू ठहरा एक लड़के का नाम और चूड़ियों का हमारे प्रान्त में मरदान्गी से वही रिश्ता है जो किसी कसाई का एक बकरे से ।

तो जनाब, बात जून महीने की है । असहनीय गरमी के चलते जब मैं ने अपने बाल कटा लिये तब नए हेयर-स्टाइल को मद्देनज़र रखते हुए, गुरूजी ने मुझे इस नाम से नवाज़ा – बबलू ।
बोले, “यार तू तो बिलकुल बबलू लग रहा है।”

जून गया, जुलाई आई, गरमी के मौसम को बारिशों की ठंडी फुहार ने अलविदा किया और एसे ही सुहाने मौसम में रमज़ान का पावन माह भी आ गया । रोज़े रखे गए, अफ़तारियाँ हुईं, सहरी के मेन्यु बहुचर्चित रहे, और देखते ही देखते ईद भी आ गई । दुनिया जहान के लोग शॉपिंग में मशगुल रहे थे, तो कहीं चाँद रात की स्पेशल मार्किट लग रही थीं, कोई नए जोड़े बनवा रहा था तो कोई साज-सिंगार का सामान ख़रीद रहा – मैं सोच रही थी कि इस ईद पर ऐसा क्या हो कि यह ख़ास बन जाए ।

2

अच्छे वक़्त को बीतते वक़्त नहीं लगता । हालाँकि वक़्त तो उतनी ही तेज़ी से बीतता है, पर, इसलिये कि वह अच्छा वक़्त है, हमें वह थोड़ा लगता है ।

छः साल पुरानी बातें, पाँच साल पुराने क़िस्से, चार साल पुरानी नज़्में, तीन साल रुकने ख़त, दो साल पुराने तोहफ़े, यही कुछ, साल भर पुराने दुआओं वाले ताबीज़, और सारी ज़िन्दगानी सिमट जाए, ऐसी यादों का एक संदूक – आज कैसे खुला ?

ओह! मैं भी अजीब पागल हूँ, पहले आज की सब तैय्यारियां तो मुकम्मल कर लूँ – सारे घर में खलेरा मचा पड़ा है, खाना भी पूरा नहीं पका अभी, वैसे, बिरयानी की महक तो बढ़िया आ रही है । और मौसी ने बाक़ी सारे कमरे भी तक़रीबन सँवार ही दिये हैं, बस वक़्त पर हॉल भी ठीक हो जाए, बैठने लायक, फिर प्लान्ट्स को पानी देना है और उफ़्फ़! गाड़ी में पेट्रोल है भी – सारे काम बस आख़िरी वक़्त पर करने वाली इस आदत का क्या करूँ, एक दिन पक्का हार्ट अटैक की शिकार बनूँगी ।

3

अब बताइये, भला ईद के दिन भी कोई इस क़दर पगलाता है – सालों पुरानी बातों की यादें ले बैठना, वह भी तब जब आप अपने अज़ीज़ तरीन दोस्त के परिवार का स्वागत करने की तैय्यारियाँ कर रहे हैं ! इस साल ईद बहुत ख़ास है ।

उस बरस तो गुरूजी ने कहा था, “बबलू, मेहन्दी लगाना, चूड़ियाँ भी लाना, नए कपड़े पहन कर अच्छे से तय्यार होना ।” मैंने भी फिर बबलू वाली बात कर दी, और कहा कि इस बरस ईदी में हरी चूड़ियाँ हॅण्ड डिलिवर कीजिये बस ! ना, उस साल ईदी नहीं आई । लेकिन अगले साल, ईद के ठीक दो दिन पहले मेरे घर एक पार्सल पहुँचा, पिन्नियाँ थीं, फ़ैज़ साहब की एक किताब, एक ख़त, और बहुत सारे बबल-रैप में लिपटी एक दर्जन हरी चूड़ियाँ ।

आज उन्हीं यादों के संदूक से निकल आईं यह । जाने कितने साल पहले गुरूजी ने भेजी थीं – बबलू की चूड़ियाँ ।

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ببلو کی چوڑیاں
1
،جب بھی میرا من بھر جاتا اپنے جیون کی ایک سی شیلی دیکھ کر ، جو سال میں کم از کم دو – تین بار زرور ہوتا میں پوھنچ جاتی اپنے پسندیدہ نائ کے پاس اور بالوں کو کسی نیے سٹائل میں کٹوا آتی اور یہ پرمپرا مینے اپنے اٹھارویں جنم دن پر اجاد کی تھی جب کاندھے سے لمبے خوبصورت بالوں کو ایسے کٹوایا جیسے کوئی پندرہ سال کا لڑکا ہو جس کا حال ہی میں نیشنل ڈیفنس اکیڈمی میں سلیکشن ہو گیا ہو
فصل کی ایسی کٹائی کے باد اگلے چھہ مہینوں تک مسلسل ایسی کیفیت رہتی مانو صاحبزادی ایک لمبی ویکیشن پر ہیں – گوا میں
اس بات کو بیتے کچھ دس سال ہو گئے . یہ سال جو بیتا  ہے ، اور صرف کچھ ہی دنوں کا مہمان رہ گیا ہے، یہ سال میرے جیون میں بہت سارے اتار – چڈھاو لے کر آیا. جہاں کئی عادتیں ، چیزیں، یہاں تک کہ لوگ بھی چھن گئے ، وہیں کئی ایسے دوست میل جو کسی کتاب کے کورے پنوں کی طرح ہیں، – میں اپنی ساری باتیں ان پننوں کے حوالے کر کے ہر رات چین کی نیند سو پاتی ہوں
ان دوستوں میں ایک ہیں – گرجی
اب، گرجی، اور دوست، کچھ عجیب سی بات لگی ہے نہ؟ کسی سفید داڑھی والے بابا کی شقل ابھرتی ہوگی زہن میں ، ہے نہ؟ اب  میں آپ سے کہوں کہ گرجی ہمارے ہم امر ہیں ٹوہ آپ کو آشچریہ  ہوگا. گرجی سے ہماری ملاقات کیسے ہوئی یہ قصّہ کسی اور دن سہی. آپ شاید یہ بھی سوچ رہے ہونگے کہ اس کہانی کا نام اتنا اٹپٹا -سا کیوں ہے – کیا یہ کوئی کہانی ہے بھی؟ اب ببلو ٹھہرا کسی لڑکے کا نام اور چوڑیوں کا ہمارے پرانت میں مردانگی سے کچھ ویسا رشتا ہے جیسا کسی کسائی کا بکرے سے.
تو جناب بات جون مہینے کی ہے. جون کی صحن نہ ہونے والی گرمی کے چلتے مانیں جب اپنے بال کٹا لئے ، ٹیب میرے نۓ ہیر-سٹائل کو دیکھتے ہوئے گرجی نے مجھے اس نام سے نوازا – ببلو
بولے، “یار تو  تو بلکل ببلو لگ رہا ہے!”
جون گیا، جولائی آئ ، گرمی کے موسم کو بارشوں کی ٹھنڈی پھہار نے آلودہ کیا اور ایسے ہی سہانے موسم میں رمضان کا پاؤں ماہ بھی آ گیا . روزے رکھے گئے ، افطاریاں ہوئیں ، سحری کے مینو بہو-چرچت رہے اور دیکھتے ہی دیکھتے، عید بھی آ گی. دنیا جہان کے لوگ شوپنگ میں مشگل تھے ، تو کہیں چاند -رات کے اسپیشل مارکیٹ لگ رہے تھے . کوئی نۓ جوڑے بنوا رہا تھا تو کوئی ساج -سنگار کا سامان خرید رہا تھا. میں سوچ رہی تھی، کہ اس عید پر ایسا کیا ہو کہ یہ عید بوہوت ہی یادگار بن جاۓ
2
اچھّے  وقت کو بیت تے وقت نہیں لگتا. ویسے وقت تو اسی تیزی سے بیت تا ہے، پر، کیوں کہ وہ اچھا وقت . ہوتا ہے، تو  ہمیں وہ تھوڈا لگتا. چھہ سال پرانی باتیں ، پانچ سال پرانے قصّے ، چار سال پرانی نظمیں ، تین سال پرانے خط ، دو سال پرانے توہفے ، یہی کچھ سال بھر پرانے دعاؤں والے طابیز  اور سری زندگانی سمٹ جائے ایسی یادوں کا ایک سندوک – آج کیسے کھلا؟ اوھو ! میں بھی عجیب پاگل ہوں ، پہلے آج کی تیّاریاں مکمّل تو کر لوں – پورا گھر جیسے بکھرا پادا ہے، ابھی کھانا بھی پورا نہیں بنا. ویسے، بریانی کی مہک اچھی آ رہی ہے، اور موسی نے باکی کمرے ٹوہ لگبھگ ٹھیک کر ہی دئے ہیں، بس، ڈرائنگ روم ذرا بیٹھنے لایک ہو جائے، پھر پلانٹس کو پانی دینا ہے اور اف ! گاڑی میں پیٹرول پورا بھی نہیں ہے ! یہ سارے کام آخری وقت کرنے کی عادت کا کیا کروں ! ایک دن پکّا ہارٹ -اٹیک کا شکار بنونگی
3
اب بتائیے بھلا عید کے دن بھی کوئی اس کدر پگلاتا ہے، سالوں پرانی باتوں کی یادیں لے بیٹھنا، وہ بھی تب ، جب آپ اپنے عزیز – ترین دوست کے پریوار کا سواگت کرنے کی تیّاریاں کر رہے ہیں ! اس سال عید بہت خاص ہے
اس برس تو گرجی نے کہا تھا، ” ببلو مہندی لگانا، چوڑیاں بھی لانا اور نیۓ کپڑے پہن کر اچھے سے تیّار ہونا.” میں نے بھی پھر ببلو والی بات کر دی اور کہا، کہ اس برس عیدی کے طور پر حری چوڑیاں ہینڈ – ڈیلیور  کیجئے ، بس. نہ، اس سال عیدی نہیں ڈیلیور ہوئی . لیکن، اگلے سال، عید کے ٹھیک دو دن پہلے، ایک پارسل میرے گھر پہنچا – اس میں پنییاں  تھیں ، فیض سحاب کی ایک کتاب، اور بہت سمبھال کر پیک کی گئی ایک درجن حری
آج انہی یادوں کے سندوک سے نکل آیئں یہ. جانے کتنے سال پہلے گرجی نے بھیجی تھیں – ببلو کی چوڑیاں

 

लिखो Or لِكهـو

एक चिट्ठी उर्दू में
एक ख़त हिन्दी में

एक सलाम भइय्या को
एक प्रणाम जीजी को

एक दुआ भतीजे-भतीजियों के लिये
एक आशीर्वाद भान्जे-भानजियों के लिये

एक शाम मेरे दोस्तों के ख़यालों में
एक सुबह उन बे-नाम से रिश्तों की बातों में

एक चिट्ठी मैं लिखूँ
और जवाब में तुम भी एक ख़त लिखना

ایک چٹھی اُردُو میں
ایک خط ہندی میں

ایک سلام بھیا کو
ایک پرنام جیجی کو

ایک دُعا بھتیجے۔بھتیجِیوں کے لِۓ
ایک آشیروَاد بھانجی۔بھانجوں کے لِۓ

ایک شام میرے دوستوں کے خیالوں میں
ایک صبح اُن بے نام رشتوں کی باتوں میں

ایک چِٹھی میں لِکھوں
اور جوَاب میں ایک خط تُم لِکھ دینا۔

सीलन or سيلن

आज क़िताब के पन्ने उन्गलियों को नम लगे,
शायद बीती शाम वह रोया होगा ।
उस की आँखों की नमी
कैसे मीलों दूर आ जाती है
कैसी अजीब-ओ-ग़रीब ताल-मेल है,
उसकी आँखों का, मेरे शहर के आसमान से !
वह सोएगा तो शायद रात भी आ ही जाएगी ।

آج کتاب کے پنے انگلیوں کو نم لگے
شاید بیتی شام وە رویا ہوگا
اس کی آنکھوں کی نمی
کیسے میلوں دور آ جاتی ہے ۔
کیسا اجیب و غریب تال میل ہے
اسکی آنکھوں کا میرے شہر کے آسماں سے
وە سوۓگا تو شاید رات بھی آ ہی جاۓگی۔

क़ीमत Or قيمت

अपनी यादों को एक ख़ूबसूरत सी रेशम की पोटली में बाँधा और बेच आई ।

क़ीमत भी ठीक ही मिल गई । सोना आज कल बाज़ार में ३०,०००/१० ग्राम के भाव चल रहा था । घर की छत टपक रही थी । माँ ने उसे शादी पर जो अँगूठी भेंट दी थी, वह उसे बेच आई ।

आँसू आते उस से पहले मन को यह कह कर मना लिया कि कम अज़ कम अगले कुछ महीने का घर ख़र्च तो निकल ही जाएगा ।

اپنی یادوں کو ایک خوبسورت سی ریشم کی پوٹلی میں باندھا اور بیچ آئ۔

قیمت بھی ٹھیک ہی مل گئ ۔ سونا آج کل بازار میں 30,000 کے دام بک رہا تھا۔ گھر کی چھت پورے مانسون ٹپکی تھی ۔ ماں نے شادی پر اسے جو انگوٹھی دی تھی، وە اسے بیچ آئ۔

آنسو آتے اس سے پہلے من کو یہ کەَ کر منا لیا کہ کم از کم اگلے کچھ مہینوں کا خرچ تو نکل آۓگا۔

यादें Or یادیں

क्या करती है सारा दिन
जो कभी थकती नहीं!
निरन्तर चंचल,
नई नई हरकतें करती हुई,
यादें भी अजीब होती हैं ।

کیا کرتی ہیں سارا دن
جو کبھی تھکتی نہیں
نرنتر چنچل
نئ نئ ہرکتیں کرتی ہئ
یادیں بھی اجیب ہوتی ہیں

काजल Or كاجل

आज फिर एक अरसे के बाद
तुम्हारी आवाज़ पड़ी कानों में

कल आँखें ढूँढ रही थी तुम्हें –
काजल जो लगाया था,
तुम कहा करते थे न,
और गहरा, और सियाह लगाओ काजल –

कल अपनी आँखों में तुम्हें देखा,
और आज तुम्हारी आवाज़ में ख़ुद को ढूँढा ।

آج پھر ایک ارسے کے باد
تمہاری آواز پڑی کانوں میں

کل آنکھیں ڈھونڈھ رہی تھی تمہے
کاجل جو لگایا تھا ۔
تم کہا کرتے تھے نہ
اور گہرا، اور سیاە لگاو کاجل

کل اپنی آنکھوں میں تمہے دیکھا
آج تمہاری آواز میں خد کو ڈھونڈھا ۔