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जब भी मेरा मन भर जाता अपने जीवन की एक सी शैली देख कर, (जो के साल में कम-अज़-कम दो-तीन बार ज़रूर होता है), मैं पहुँच जाती अपने पसंदीदा नाई की दुकान, यानि कि सॅलोन में, और बालों को किसी नए स्टाइल में (ऐसा केवल मुझे लगता है) कटा आती । यह परम्परा मांने अपने अठारहवें जन्मदिन पर इजाद की थी, जब कान्धों से नीचे आते लम्बे, ख़ूबसूरत बालों को कुछ इस तरह कटाया मानों किसि १५ वर्ष का लड़का हो जिस का हाल ही में नेशनल डिफ़ेन्स अकादमी में चयन हो गया ।
फ़सल की ऐसी कटाई के बाद अगले छः महीनों तक मुसलसल ऐसी कैफ़ियत रही मानो साहबज़ादी एक लम्बी वॅकेशन पर हैं । गोआ में ।
इस घटना को बीते कुछ दस साल होने आए ।
यह साल जो बीत रहा है, और बहरहाल सिर्फ़ चन्द दिनों का मेहमान है, यह साल मेरे जीवन में कई उतार-चढ़ाव ले कर आया । जहाँ कई आदतें, चीज़ें, यहाँ तक कि लोग भी मुझ से छिन गए, वहीं कुछ ऐसे अज़ीज़ दोस्त मिल गए जो किताब के कोरे पन्नों की तरह हैं, मैं अपने मन की सारी बातें उन पन्नों को सौंप कर हर रात चैन की नीन्द सो पाती हूँ ।
इन दोस्तों में एक हैं – गुरूजी ।
अब, गुरूजी, और दोस्त, कुछ अजीब सी बात लगती है न? किसी सुफ़ैद दाढ़ी वाले बाबा की शक़्ल उभरती होगी ज़हन में । अब मैं आप से कहूँ कि यह जो गुरूजी हैं, वह हमारे हमउम्र हैं, तो आप को आश्चर्य होगा । गुरूजी से हमारी मुलाक़ात कैसे हुई, यह क़िस्सा किसी और दिन सही । आप शायद यह भी सोच रहे होंगे कि इस कहानी का नाम इतना अटपटा सा क्यूँ है ? अब, बबलू ठहरा एक लड़के का नाम और चूड़ियों का हमारे प्रान्त में मरदान्गी से वही रिश्ता है जो किसी कसाई का एक बकरे से ।
तो जनाब, बात जून महीने की है । असहनीय गरमी के चलते जब मैं ने अपने बाल कटा लिये तब नए हेयर-स्टाइल को मद्देनज़र रखते हुए, गुरूजी ने मुझे इस नाम से नवाज़ा – बबलू ।
बोले, “यार तू तो बिलकुल बबलू लग रहा है।”
जून गया, जुलाई आई, गरमी के मौसम को बारिशों की ठंडी फुहार ने अलविदा किया और एसे ही सुहाने मौसम में रमज़ान का पावन माह भी आ गया । रोज़े रखे गए, अफ़तारियाँ हुईं, सहरी के मेन्यु बहुचर्चित रहे, और देखते ही देखते ईद भी आ गई । दुनिया जहान के लोग शॉपिंग में मशगुल रहे थे, तो कहीं चाँद रात की स्पेशल मार्किट लग रही थीं, कोई नए जोड़े बनवा रहा था तो कोई साज-सिंगार का सामान ख़रीद रहा – मैं सोच रही थी कि इस ईद पर ऐसा क्या हो कि यह ख़ास बन जाए ।
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अच्छे वक़्त को बीतते वक़्त नहीं लगता । हालाँकि वक़्त तो उतनी ही तेज़ी से बीतता है, पर, इसलिये कि वह अच्छा वक़्त है, हमें वह थोड़ा लगता है ।
छः साल पुरानी बातें, पाँच साल पुराने क़िस्से, चार साल पुरानी नज़्में, तीन साल रुकने ख़त, दो साल पुराने तोहफ़े, यही कुछ, साल भर पुराने दुआओं वाले ताबीज़, और सारी ज़िन्दगानी सिमट जाए, ऐसी यादों का एक संदूक – आज कैसे खुला ?
ओह! मैं भी अजीब पागल हूँ, पहले आज की सब तैय्यारियां तो मुकम्मल कर लूँ – सारे घर में खलेरा मचा पड़ा है, खाना भी पूरा नहीं पका अभी, वैसे, बिरयानी की महक तो बढ़िया आ रही है । और मौसी ने बाक़ी सारे कमरे भी तक़रीबन सँवार ही दिये हैं, बस वक़्त पर हॉल भी ठीक हो जाए, बैठने लायक, फिर प्लान्ट्स को पानी देना है और उफ़्फ़! गाड़ी में पेट्रोल है भी – सारे काम बस आख़िरी वक़्त पर करने वाली इस आदत का क्या करूँ, एक दिन पक्का हार्ट अटैक की शिकार बनूँगी ।
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अब बताइये, भला ईद के दिन भी कोई इस क़दर पगलाता है – सालों पुरानी बातों की यादें ले बैठना, वह भी तब जब आप अपने अज़ीज़ तरीन दोस्त के परिवार का स्वागत करने की तैय्यारियाँ कर रहे हैं ! इस साल ईद बहुत ख़ास है ।
उस बरस तो गुरूजी ने कहा था, “बबलू, मेहन्दी लगाना, चूड़ियाँ भी लाना, नए कपड़े पहन कर अच्छे से तय्यार होना ।” मैंने भी फिर बबलू वाली बात कर दी, और कहा कि इस बरस ईदी में हरी चूड़ियाँ हॅण्ड डिलिवर कीजिये बस ! ना, उस साल ईदी नहीं आई । लेकिन अगले साल, ईद के ठीक दो दिन पहले मेरे घर एक पार्सल पहुँचा, पिन्नियाँ थीं, फ़ैज़ साहब की एक किताब, एक ख़त, और बहुत सारे बबल-रैप में लिपटी एक दर्जन हरी चूड़ियाँ ।
आज उन्हीं यादों के संदूक से निकल आईं यह । जाने कितने साल पहले गुरूजी ने भेजी थीं – बबलू की चूड़ियाँ ।
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