बहाना Or بہانہ

​कितना आसान  उस से बातें करना!
अँधेरी सी सड़क पर, उस छोटी सी किराने की दुकान के पास भी, ऑटो-रिक्षा में, पानी-पूरी वाले या चाय वाले के ठेले के पास – बातें ऐसे आसानी से आ जाती थीं, कभी कभी तो इतनी ज्यादा के डेढ़-दो घंटे कहाँ बीत गए पता भी न चलता। शायद यह बात बाकियों को चुभती भी थी – कैसे हो सकता है, दो लोग दिन-ब-दिन एक दुसरे से यूँ बात किये जा रहे हैं! उस वक़्त कुछ बुरा नहीं लगता था। शायद यह मोहब्बत के होने का महत्वपूर्ण संकेत है – आँखों पे गुलाबी चश्मा, दुनिया रंगीन, मिज़ाज खुशनुमा, और मई के माह की चिलचिलाती धूप भी सुहानी लगे! खैर, अभी ताज़ा हुई थी मोहब्बत, और जहाँ एक तरफ वक़्त थम सा गया था, वहीँ दूसरी तरफ, दुनिया बड़ी तेज़ी से इक्कीसवीं सदी में छलांगें लगा कर आगे बढ़ रही थी।
देखते ही देखते वोह वक़्त भी आया कि एक दिन हल्दी का पीला रंग चढ़ा तो दुसरे दिन मेहँदी ने हाथ लाल किये। साड़ी मौसियाँ, बुआयें, दादियाँ-नानियाँ इकठ्ठा हुई और ददिहाल और ननिहाल वाले दो कैम्पस में बँट गयीं। ऐसे रिश्तेदार भी कहीं कहीं से आ कर प्यार-दुलार जताने लगे जिन्हें पिछले छः – आठ सालों में न देखा, न सुना।  वह पडोसी भी आ प्रकट हुए जो साल में सिर्फ बार-त्यौंहार पर मिलते, और खाने का मेनू बनाने लगे।  घर अब घर नहीं रहा, किसी मेले की शक्ल का सा हो गया – सार दिन चहल पहल।
अब वक़्त और बातें, दोनों चुराने पड़ते थे, कभी उन खुश-मिज़ाज रिश्तेदारों से नज़र बचा कर, कभी उन छेड़ने-चिढ़ाने वाले दोस्तों की मदद ले कर, कहीं वोह वक़्त और जगह ढूँढने पड़ते, जहाँ फिर से यूँ होता कि बाकि सब धीमा हो जाता, आवाज़ और किसी को न सुनते हुए भी, आपस की बातें साफ-साफ सुनाई दे जाति।  खामोशियाँ भी अब हमारे behalf पर बातें कर लेती।
बस एक वोह दिन था, जब एक दुसरे को दूल्हा-दुल्हन बना देख ऐसे हंस पड़े जैसे… जैसे क्या, बस हंसी छूट गयी कि हम इतने अजीबो-ग़रीब दिख सकते हैं।  अगले कुछ घंटे रीत-रिवाज़ों की एक प्रतिस्पर्धा सी चली दो परिवारों के बीच, और हम सोच रहे थे, कहाँ फँस गए!  यह ऐसी स्पर्धा थी, जिसमें जीता कौन यह कहना तोह मुश्किल था, पर हम तोह अपने को बड़ा थक-हारा महसूस कर रहे थे।  अब इस मक़ाम से आगे कैसे जाना है इस बात का अंदाज़ा तोह शायद न उसे था न मुझे।  तो यहीं से हमारे ट्रायल व एरर शुरू हो गए।  इन ट्रायल और एरर का सिलसिला ऐसा चला कि कभी लगता था, हमारी ट्रायल बाई एरर ही न हो रही हो, क़ानूनन।
ज़िन्दगी ने न जाने कब, कैसे, फिर रफ़्तार पकड़ी, और जीवन फिर सामान्य होने लगा।  उसके सामान्य होने के साथ साथ, बातें काम में तब्दील होने लगीं और इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं ने सांझे सपनों की जगह लेना शुरू कर दिया।  सामान्य सी ही बात थी।  और हम कौन सा कोई आसमान से उतरे फ़रिश्ते थे! पहले जीवन और फिर काम में ऐसे मसरूफ़ हुए कि  बातें हमें भूल गयीं।
पांच साल पहले बात-बेबात, बातों से भरा ख़त यूँ ही उस के नाम के लिफ़ाफ़े में डाल पोस्ट कर देती थी।  कुछ महीने पहले उसने कुछ काग़ज़ात भेजे, लिफ़ाफ़े पर मेरा नाम और पता प्रिंट कर के चिपकाया थ, ट्रांसपेरेंट वाली स्कॉच टेप से। वह टेप देखि तोह ख्याल आया, कि वोह अब तक उसी पुराणी टेप को यूज़ कर रहा है, अब यह ठीक तरह चिपकाती भी नहीं।  सोचा आज एक ख़त लिखूं उसे, कहूं, नयी टेप तो खरीद लाओ, और टेप के बहाने से, उसका हाल भी पूछ लूं।
کتنا آسان تھا اس سے بات کرنا
اندھیری سی سڑک پر اس چھوٹی سی کرانے کی دکان کے پاس بھی، آٹو – رکشا میں ، پانی-پوری والے کے یا چاۓ والے کے ٹھیلے کے پاس، باتیں ایسی آسانی سے آ جاتی تھیں . کبھی کبھی تو اتنی زیادہ کہ دیڑھ-دو گھنٹے کہاں بیتے وہ پتا بھی نہ چلا . شاید یہ باکیوں کو چبھتی بھی تھی . کیسے ہو سکتا ہے کہ دن-بہ-دن وہی دو لوگ ایک دوسرے سے یوں باتیں کیۓ جا رہے ہیں. اس وقت کچھ برا نہیں لگتا تھا. شاید یہ محبت کے ہونے کا سب سے اہم نشان ہوتا ہے : آنکھوں پہ گلابی چشمہ، دنیا رنگین، مزاج خوشنما، اور مئی کے ماہ کی چلچلاتی دھوپ بھی سہانی لگے! خیر، ابھی تازہ محبّت تھی، اور جہاں ایک طرف وقت تھم سا گیا تھا، وہیں دوسری طرف، دنیا چھلانگیں لگا کر اکیسویں صدی میں آگے بڑھ رہی تھی
دیکھتے ہی دیکھتے وہ وقت بھی آ گیا کہ ایک دن ہلدی کا پیلا رنگ چڑھا اور دوسرے دن مہندی نے ہاتھ لال کیے . ساری کھلائیں ، پھوپھیاں ، نانی-دادی، سب اکٹھا ہوئ اور دو کیمپس میں بانٹ گیئں. ایسے رشتےدار بھی کہیں کہیں سے آ کر پیار-دلار جتانے لگے ، جنہے پچھلے چھہ – آٹھ سالوں میں نہ دیکھا نہ سنا. وہ پڑوسی بھی آ گئے جو سال میں صرف بار-تیوہار پر ملتے، اور خانے کے مینو بنانے میں مدد کرنے لگے. گھر اب گھر نہیں رہا، کسی میلے کی شقل کا سا ہو چلا تھا.
اب وقت اور باتیں، دونو چرانے پڑتے تھے، کبھی ان خوش مزاج رشتےداروں سے نظریں بچا کر، تو کبھی ان چھیڑنے-چڑھانے والے دوستوں کی مدد لے کر، کہیں وہ وقت اور جگہ ڈھونڈھنے پڑتے، جہاں پھر سے یوں ہوتا کہ باکی سب دھیما ہو جاتا، اور خاموشیاں بھی ہماری جانب سے باتیں کر لیتی.
بس ایک وہ دن تھا جب ایک دوسرے کو دولہا-دلہن بنا دیکھ ایسے ہنس پڑے تھے جیسے … جیسے کیا، بس ہنسی چھوٹ گیی کہ ہم اتنے عجیب-و -غریب دیکھ سکتے ہیں . اگلے کچھ گھنٹے ریت-رواجوں کی ایک ہوڑ سی چلی دو پرواروں کے بیچ. اور ہم سوچ رہے تھے کہاں پھنس گئے. یہ ایسی ہوڑ تھی، جس میں جیتا کون یہ کہنا تو مشکل تھا، پر ہم اپنے کو بیحد تھکا – ہارا محسوس کر رہے تھے. اب اس مکام سے آگے کیسے جانا تھا، اس بات کا اندازہ شاید نہ اسے تھا، نہ مجھے. تو یہیں سے ہمارے ٹرائل اور ایرر شرو ہو گئے. ان ٹرائل اور ایرر کا سلسلہ ایسا چلا کہ کبھی تو لگتا کہیں ہماری ٹرائل بائی ایرر ہی نہ ہو رہی ہو، قانونن .
زندگی نے پھر جانے کب، کیسے رفتار پکڑی، اور جیون پھر آم سا ہو گیا. اسکے آم ہونے کے ساتھ، باتیں کب کام میں تبدیل ہونے لگی، اور انا نے سانجھے سپنوں کی جگہ لے لی. آم بات ہے نہ؟ اور ہم کون سا آسمان سے اترے فرشتے تھے! پہلے جیون اور پھر کام میں ایسے مصروف ہوئے کہ باتیں ہمکو بھول گیئں.
پانچ سال پہلے، بات-بے بات، باتوں سے بھرا خط یوں ہی اس کے نام کے لفافے میں ڈال پوسٹ کر دیتی تھی. کچھ وقت پہلے، اس نے کچھ کاغذات بھیجے، لفافے پر میرا پتا چپکایا گیا تھا. ایک پرانی سکاچ ٹیپ سے. اس ٹیپ کو دیکھ کر خیال آیا، کتنی پرانی ہو گیی ہے، اب ٹھیک طرح چپکتی بھی نہیں. سوچا، آج ایک خط لکھوں اسے. کہونگی، نیی سکاچ ٹیپ ٹوہ خرید لاؤ. اور ٹیپ کی نصیحت کے ساتھ، اسکی سیحت کا حال بھی پوچھ لوں گی.